गीत हो गए बौने दु:ख की लंबी छायाएँ
गीत✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
गीत हो गए बौने दु:ख की लंबी छायाएँ
सीख लिया सूरज से अब तो हमने भी ढलना।
जब विडंबना का पत्थर तोड़े मन का दर्पण
मगरमच्छ जैसे आँसू तब लोग करें अर्पण
कुटिल हुई जब दृष्टि समय की कौन रहा अपना
निष्ठाओं के व्यापारी कैसे करते तर्पण
मदिरालय में बीत रही हैं अपनी संध्याएँ
होता है आभास अंत में हाथ यहाँ मलना।
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उफन रही भावों की नदिया कैसे पार लगें
जीवन में छा गया अँधेरा कब तक यहाँ जगें
आशाओं की अर्थी अपने कंधे पर लादी
आज हाथ की रेखाएँ भी लगता हमें ठगें
मिट्टी में मिल जाती हैं जब सबकी कायाएँ
मानव नहीं छोड़ता फिर क्यों मानव से जलना।
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कोलाहल वाले स्थल में छाए वीरानी
झंझावात नियति के करते रहते मनमानी
गिरगिट जैसे रंग बदलता जाने क्यों मौसम
कालचक्र में फँसकर किसने हार नहीं मानी
बदल गए सिद्धांत तोड़ दीं भीष्म प्रतिज्ञाएँ
लिखा विधाता ने जो उसको कभी नहीं टलना।
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बूढ़े बरगद ने झेली हैं कितनी बरसातें
उतने ही दु:ख- दर्दों में हमने काटीं रातें
आ जाओ वापस चाहे हो क्षणिक मिलन अपना
याद आ रहीं हैं हमको भूली- बिसरी बातें
चौराहों पर पंचायत हो कितने बतियाएँ
जो बाधाएँ डालें उनकी दाल नहीं गलना।
रचनाकार- ✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
'कुमुद- निवास'
बरेली (उ. प्र.)
मोबा.- 98379 44187
( सर्वाधिकार सुरक्षित)
Reena yadav
15-Mar-2023 11:33 PM
👍👍
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डॉ. रामबली मिश्र
15-Mar-2023 05:51 PM
बेहतरीन
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Gunjan Kamal
15-Mar-2023 09:23 AM
बहुत खूब
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